भारत की राजनीति
में धर्म हमेशा ही बड़ी मुद्दा रहा है । मोदी ने भी अपने चुनाव प्रचार में राम मंदिर का
मुद्दा रखा ताकि धार्मिक आस्थावान आम जनता को संतुष्ट कर सकें। लेकिन यह मेरी व्यक्तिगत राय है कि मोदी तो केवल देश
के विकास की बातों से ही जीत जाते क्योंकि देश जिस तंगी से गुज़र रहा है वहाँ मंदिर
से ज़्यादा ज़रूरत दो वक़्त की रोटी की है क्योंकि खाली पेट धर्म भी नहीं होता । आज भी अगर किसी मन्दिर और मस्जिद को ले कर राजनीति करनी पड़े
तो दुख की बात है ।चाहे वो
हिन्दूओं का राम मंदिर ही क्यूँ न हो ।
आज हम अगर ‘राम’ का नाम लेते है तब लोग हमें समझाते हैं कि ‘राम’ से ज़्यादा ‘काम’ ज़रूरी है ! फिर जब वे लोग राम-राम जपते हैं और जब हम कहते हैं कि ’राम’ से ज़्यादा ज़रूरी ’काम’ है तब ये समझाने वाले लोग अपनी बात से पलट
क्यों जाते हैं ?? अगर धार्मिक कट्टरता मोदी के सैलाब में बह गई और अब लोग सिर्फ
प्रगति के बारे में सोच रहे तो अच्छी बात है । अगर सच में ही इन लोगों की सोच बदल
गई है तो अच्छी बात है । नहीं तो ये लोग अपना मत बदल कर फिर किसी न किसी के लहर
में बह जाएंगे । ऐसे में इंसान की उस कट्टरता का क्या सम्मान रह जाता है जो वक़्त
वक़्त में दूसरे किसी व्यक्ति के सोच पर निर्भर हो कर बदलती रहती है ? मोदी खुद कहते है “चमचागीरी छोड़ो और काम करो” ।
मैं कट्टर नहीं हूँ । कुछ वक़्त पहले की ही बात है जब हम महंगाई और शिक्षा जैसे मुद्दों को धर्म से आगे रखते थे और कुछ कट्टर हिन्दू हमारे लिए ‘सेकुलर’ शब्द को ‘गाली’ के तौर पर प्रयोग करते थे। उनके लिए धर्म ही पहला मुद्दा था ! मानो मोदी आते ही तुष्टीकरण को खतम कर देंगे और आते ही पाकिस्तान पर हमला कर देंगे । ये लोग घंटों तक हमें समझने की कोशिश करते थे और इसके बावज़ूद जब हम अपनी सोच पर कायम रहते थे तब हमें कहा जाता था कि हम जैसे लोगों की वजह से ही हिन्दू धर्म की यह हालत है । वे पूछते थे कि “क्या तुम्हारी इंसानियत धर्म से बड़ी है ? धर्म की इज्ज़त करो ।” आज भी मैं यही कहती हूँ कि “आज अगर मुझमे इंसानियत बची है वो सिर्फ हमारे धर्म की ही देन है”। निर्भर करता है इंसान किसी बात को ले कर कैसी सोच रखता है ।
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