चलो फिर से अजनबी बन जाते हैं , हम एक दूजे से ,
क्योंकि ... बिक चुकी है इंसानियत इस जहाँ के बाज़ार में |
जीवन के इस निर्मम पथ पर , जहाँ वक़्त का कोई ठिकाना नहीं ,
वहाँ अनजाने सवालों का पता हम अजनबियों से पूछते हैं |
कदम के साथ कदम मिलाने की , कोशिश कि इस जहाँ में ,
वक़्त आने पर दुआएँ ,
तो मिलती है मगर दवा नहीं मिलती |
राहें तो मिलती है कई , इस ग़ैरों कि जहाँ में , लेकिन
ग़ैरों में अपने की तलाश में , यहाँ मंज़िल नहीं मिलती | - लिली कर्मकार
सुन्दर भाव !!
ReplyDeleteबेहतरीन भाव लिए रचना ।
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- जख्मों का हिसाब (दर्द भरी हास्य कविता)
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,धन्यबाद।
ReplyDeleteधन्यवाद ....
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